अमित मिश्रा, नई दिल्लीः सत्ता में आने की चाह ने राजनीतिक दलों में मुफ्त की घोषणाओं की होड़ लगी हुई है। कोई 200 यूनिट बिजली फ्री की बात करता है तो कोई 300 यूनिट। जनता को राजनीतिक दलों की ऐसे वादे खुब लुभाते भी हैं। जनता ज्यादा मुफ्त करने वाले राजनीतिक दलों की घोषणाओं को पसंद करते हुए सत्ता थमा देती है। लेकिन उसके बाद राज्यों का जो हश्र होता है विगत कुछ महीनों से यह खूब देखने को मिल रहा है। पहले यह हिमाचल प्रदेश में देखने को मिला।
मुफ्त के चक्कर में सरकार का खजाना खाली हो गया और कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे तक नहीं बचे। अभी हाल ही में यह कर्नाटक में भी देखने को मिल रहा है। कर्नाटक की आर्थिक स्थिति खराब होने के बाद मुफ्त की घोषणाओं पर विचार होने की बात उठने लगी। यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे तक को अपने ही मुख्यमंत्री को नसीहत देनी पड़ी।
यह केवल एक या दो राज्य की बात नहीं है। कई राज्यों की अर्थव्यवस्था इन मुफ्त योजनाओं की वजह से पूरी तरह चरमरा गई है। इस चरमराहट की गूंज भी अब बाहर निकलकर आने लगी है। दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे कई राज्यों में हालत बेकाबू होने लगे हैं। इसको देख मुफ्त की रेवड़ी को लेकर भी सियासत तेज हो गई है।
राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त की रेवड़ी बांटने का रिवाज केवल भारत में ही नहीं है। दुनिया के कई देश चुनाव में इसका इस्तेमाल करते हैं। हाल ही में श्रीलंका में इसका भयानक दुष्परिणाम देखने को मिल चुका है। श्रीलंका के आर्थिक पतन का कारण वहां के राजनीतिक दलो द्वारा दिए गए मुफ्त उपहार को माना जा रहा है। मुफ्त की इस रेवड़ी का प्रचलन अमेरिका तक में पहुंच गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में भी दोनों दलों की ओर से इस तरह के वायदे किए जाने लगे हैं।
मोरक्को, वेनेजुएला जैसे देश भी इसका दुष्परिणाम भुगत चुके हैं। दरअसल सत्ता में आने के लिए चुनावी दल घोषणाएं करते है। इन घोषणाओं का मकसद सत्ता में आने के बाद करने वाले कामों का होता है। यह काम सरकार की योजना आधारित होती है। अस्सी के दशक तक इसमें मुफ्त वाली सुविधाएं नहीं थी। सब्सिडी की बातें जरूर थी। सब्सिडी और मु्फ्त की योजना में अंतर होता है। सब्सिडी, एक उचित और किसी विशेष लक्षित लाभ के लिए होती है जो जनता की मांग से उत्पन्न होती हैं जबकि मुफ्तखोरी इससे बिल्कुल अलग है।
देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाले लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए हर राजनीतिक दल को सब्सिडी देने का अधिकार है लेकिन इससे राज्य और केंद्र के सरकारी खजाने में लंबे समय के लिए बोझ नहीं पड़ना चाहिए। इससे देश की वित्तिय स्थिति खराब हो सकती है। मुफ्तखोरी के प्रभावों को समझने और इसे करदाताओं द्वारा दिए जाने वाले टैक्स से जोड़ कर देखा जाना चाहिए।
मुफ्त की इस चुनावी रेवड़ी का सबसे ताजा प्रभाव कर्नाटक में देखने को मिला। कांग्रेस की कर्नाटक सरकार इस वक्त आर्थिक तंगी से जूझ रही है। इसके लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने ही पार्टी नेताओं और सरकार को सख्त लहजे में खरा-खरा सुना डाला। उन्होंने साफ कह दिया कि उतनी ही गारंटी का वादा करें, जितना दे सकें। वरना सरकार दिवालियापन की तरफ चली जाएगी।
कर्नाटक से ‘मुफ्त की रेवड़ी’ को लेकर जो उदाहरण सामने आया है, उससे सभी राजनीतिक दलों को सबक लेने की जरूरत है। कांग्रेस अध्यक्ष की इस साफगोई को भाजपा ने हाथों हाथ लपक लिया। भाजपा इसको लेकर हमलावर हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने इसको लेकर कांग्रेस की खिंचाई कर डाली। इसके बाद कांग्रेस बचाव में उतर आई। पार्टी संगठन के पदाधिकारियों से लेकर मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्रियों तक की फौज भाजपा को किए गए उनके वायदे और उसे पूरा न कर पाने का इतिहास बताने लगे।
कांग्रेस अध्यक्ष खरगे ने भी प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधा। वहीं प्रियंका गांधी भी पार्टी अध्यक्ष के बचाव में मोदी सरकार पर निशाना साधने में देरी नहीं की। उन्होंने ‘सत्यमेव जयते’ वाक्य का उल्लेख करते हुए कहा कि कांग्रेस पार्टी ने जिस राज्य में जनता से जो वादे किए, अगला चुनाव आने का इंतजार किए बिना, सरकार बनते ही उन्हें पूरा करने का काम शुरू किया है। चाहे कर्नाटक हो, तेलंगाना हो या हिमाचल प्रदेश, कांग्रेस की सरकारों वाले प्रदेशों में जनता का पैसा जनता की जेब में प्रतिदिन गारंटियों द्वारा डाला जा रहा है।
मुफ्त की रेवड़ी का प्रचलन तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता ने की थी। उन्होंने मुफ्त साड़ी, प्रेशर कुकर जैसी चीजें देकर इस चलन की नींव रखी थी। बाद में, आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में मुफ्त बिजली और पानी का वादा करके 2015 का चुनाव जीता और बाद में पंजाब में 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली और 18 साल या उससे ज्यादा उम्र की हर महिला को 1,000 रुपये प्रति माह देने कर ऐतिहासिक जीत दर्ज की।
केरल में भी वाम दलों ने मुफ्त राशन किट देकर जीत हासिल की। इसके बाद से यह प्रचलन बढ़ता ही गया। चुनावी जीत के लिए कांग्रेस और भाजपा ने भी इसे अपना लिया है। इसका लाभ भी मिला। कांग्रेस हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में सत्ता हासिल करने में सफल रही। वहीं भाजपा मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ऐसी घोषणाओं का लाभ उठाने में सफल रही। महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने हैं। सभी राजनीतिक दलों में मुफ्त योजनाओं की बातें करने की होड़ लगी हुई है।
मुफ्त की घोषणाओं का समर्थन करने वालों का कहना है कि भारत जैसे देश में जहाँ राज्यों में विकास का एक निश्चित स्तर है (या नहीं है), चुनाव आने पर लोगों को नेताओं/राजनीतिक दलों से ऐसी उम्मीदें होने लगती हैं जो मुफ्त के वादों से पूरी होती हैं। इसके अलावा जब आस-पास के अन्य राज्यों के लोगों को मुफ्त सुविधाएँ मिलती हैं तो चुनावी राज्यों में भी लोगों की अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं। यह कम विकसित राज्यों के लिए मददगार होती है।
वहीं विरोधी पक्षों का तर्क है कि मुफ्त सुविधाएं देना हर राजनीतिक दल द्वारा लगाई जाने वाली प्रतिस्पर्द्धी बोली बन गया है, हालांकि एक बड़ी समस्या यह है कि किसी भी प्रकार की घोषित मुफ्त सुविधा को बजट प्रस्ताव में शामिल नहीं किया जाता है। ऐसे प्रस्तावों के वित्तपोषण को अक्सर पार्टियों के ज्ञापनों या घोषणापत्रों में शामिल नहीं किया जाता है। इससे राज्यों पर आर्थिक बोझ बढ़ता है।