सुभाष राज स्वतंत्र पत्रकार:
बर्ड फ्लू तेजी से इंसानों में फैल रहा है। वैसे तो ये बीमारी पक्षियों में एक विषाणु की वजह से होती है लेकिन इसके म्यूटेंट हुए विषाणु अब इंसानों को भी चपेट में ले रहे हैं। बर्ड फ्लू विषाणु 2020 में जिस नए अवतार में प्रकट हुआ है, उसने कोरोना विषाणु की तरह पूरी दुनिया में फैल जाने का खतरा उत्पन्न कर दिया है। पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के विज्ञानियों ने अमेरिका के अनेक राज्यों में मवेशियों की जांच में म्यूटेंट विषाणु की मौजूदगी पाई है। विज्ञानियों को चिंता है कि स्तनधारियों को अपनी चपेट में लेने वाला यह विषाणु अपना स्वरूप कहीं इतना न बदल ले कि यह इंसानों से इंसानों में फैलने लगे।
जिस तरह दुनिया में आवागमन की रफ्तार तेज हुई है और लोगों के खानपान की आदतें बदली हैं, उन्हें देखते हुए बर्ड फ्लू का विषाणु एचऽएन1 एक खतरनाक स्थिति पैदा कर सकता है। अगर किसी विषाणु में उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) की क्षमता पैदा हो जाए, तो वह अचानक और ज्यादा संहारक बन जाता है। म्यूटेशन का आशय है कि ऐसी स्थिति में कोई विषाणु एक संक्रमित व्यक्ति से दूसरे तक महज खांसी वा छींक के जरिए भी पहुंच सकता है, उसके लिए संक्रमित पक्षी का मांस खाना जरूरी नहीं होता।
वैसे तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अभी तक ‘बर्ड फ्लू’ विषाणु के इंसानों से इंसानों में फैलने की आशंकाओं से इनकार किया है। मगर हालात कब विकट हो जाएं, इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। हाल में दुनिया के कई देशों में इंसानों तक ‘बर्ड फ्लू’ विषाणु पहुंचने के मामले सामने आए हैं। इनमें से तीन तो अमेरिका में मिले हैं। मैक्सिको, चीन, आस्ट्रेलिया और भारत में भी बर्ड फ्लू के इंसानों में पहुंचने की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। चिंताजनक बात ये है कि इसी साल अप्रैल में केरल में बर्ड फ्लू का मामला प्रकाश में आ चुका है। कोलकाता से आस्ट्रेलिया गए एक व्यक्ति में यह विषाणु मिला था और रांची में भी एक बच्चे में इसकी मौजूदगी पाई गई थी।
कोरोना से पहले भी बर्ड फ्लू (एवियन इंफ्लूएंजा) के खतरों को कोई कम बड़ी चेतावनी नहीं माना जाता था। संयुक्त राष्ट्र काफी पहले ही बर्ड फ्लू के खतरे के बारे में चेतावनी दे रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि बर्ड फ्लू के विषाणु ने एंटीजेनिक छलांग (यानी एक जीव प्रजाति से दूसरी जीव प्रजाति तक फैलने वाला संक्रमण) लगा ली है और इसने इंसानों तक पहुंच का यह अंतिम दरवाजा पार कर लिया है। अब समस्या उन विषाणुओं के इंसानों तक आ पहुंचने की है जिनका संबंध असल में पशु-पक्षियों की होने वाली संक्रामक बीमारियों से है। बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, इबोला, डेंगू और एचआइवी-एड्स से होने वाली मौतों में बीते तीन-चार दशक में कई गुना बढ़ोतरी हो चुकी है।
1973 के बाद से दुनिया में विषाणुजनित तीस नई बीमारियों ने मानव समुदाय को घेर लिया है। धरती पर फैले सबसे घातक रोगाणुओं ने एंटीबायोटिक और अन्य दवाओं के खिलाफ जबरदस्त जंग छेड़ रखी है और बीमारियों के ऐसे उत्परिवर्तित विषाणु आ गए हैं, जिन पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। हाल के वर्षों में दुनिया भर में इनके उभार ने साबित किया है कि इंसान यह मानकर निश्चित नहीं हो सकता कि जो बीमारियां पशु-पक्षियों को होती हैं, वे उसे नहीं हो सकतीं।
सवाल है कि इंसानों तक नए-नए विषाणु आखिर पहुंचते कैसे हैं। विषाणु कुछ और नहीं, बल्कि बैक्टीरिया में पनपने बाले परजीवी हैं। जब ये कोशिकाओं से किसी कारणवश बाहर निकल आते हैं या बैक्टीरिया का खोल तोड़ देते हैं तो उनकी चपेट में आने वाला कोई भी जीव आसानी से संक्रमित हो जाता है। इस बारे में किए गए शोधों का निष्कर्ष है कि अस्सी प्रतिशत विषाणु, मनुष्य तक पालतू जानवरों, मुर्गियों, जंगली जानवरों के जरिए या फिर उन नए इलाकों की खोज के दौरान पहुंचते हैं, जहां यह पहले कभी न गया हो। हालांकि विषाणुओं का एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति तक पहुंचना बहुत दुर्लभ है। लेकिन मांसाहार की बदलती प्रवृत्तियां इंसानों को अन्य जीवों के विषाणु की चपेट में लाने का एक बड़ा कारण अवश्य हैं।
वैसे तो सभी जीवों में कई तरह के विषाणुओं का संक्रमण हमेशा मौजूद होता है और उनका शरीर इससे लड़कर जीवन को बनाए रखने में सक्षम होता है। मनुष्य के शरीर में भी कई ऐसे विषाणु होते हैं जो या तो उसे नुकसान नहीं पहुंचाते या फिर कुछ घातक बीमारियों से बचाते हैं। बीमारी से बचाने वाले विषाणुओं को मित्र विषाणु कहा जाता है। 1973 के बाद से दुनिया में विषाणुजनित तीस नई बीमारियों ने मानव समुदाय को घेर लिया है।
धरती पर फैले सबसे घातक रोगाणुओं ने एंटीबायोटिक और अन्य दवाओं के खिलाफ जबरदस्त जंग छेड़ रखी है और बीमारियों के ऐसे उत्परिवर्तित विषाणु आ गए हैं, जिन पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। यानी मौका पड़ने पर विषाणु अपना स्वरूप बदल लेते हैं.
जिससे उनके प्रतिरोध के लिए बनी दवाइयां और टीके कारगर नहीं रह पाते हैं। स्पष्ट है कि जब तक इंसान अपने रहन-सहन और खान—पान की खराब आदतों पर अंकुश नहीं लगाएगा और पूरे पारिस्थितिकी तंत्र में दखलंदाजी से बाज नहीं आएगा तब तक एक से एक खतरनाक विषाणु उभरेंगे और दुनिया को इसी तरह संकट में डालते रहेंगे।